मदन मोहन श्री कृष्ण का ही एक नाम है। इसका शाब्दिक अर्थ है मदन अर्थात् कामदेव और मोहन अर्थात मोहित करने वाला। श्री कृष्ण कामदेव को भी मोहित करने वाले गुणों से आपूरित हैं। इन्हें प्रदुम्न के रूप में कामदेव के पिता के रूप में भी जाना जाता है। श्री कृष्ण के इस नाम से अर्थात् मदन मोहन के नाम से मंदिरों की संख्या बहुत ही सीमित है। खोज करने से यह ज्ञात होता है कि राधा कृष्ण मंदिर अनेक संख्या में हैं किन्तु मदन मोहन मंदिर मात्र पाँच ही अभी तक ज्ञात हैं जो निम्नवत हैं :
भारत में प्रमुख 5 मदन मोहन मंदिर:
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1. मदन मोहन मंदिर, मेलोक (सामता के निकट) पश्चिम बंगाल में जिसे मुकंद प्रसाद रायचौधरी (पहलवान) ने बनवाया था 1651 ई. में।
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2. मदन मोहन मंदिर, बोड़ेया (कांके) राँची, झारखण्ड में जिसका निर्माण लक्ष्मी नारायण तिवारी ने करवाया था 1665 ई. में।
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3. मदन मोहन मंदिर, विष्णुपुर (बाँकुड़ा) पश्चिम बंगाल में जिसका निर्माण राजा दुर्जन मल्लदेव द्वारा किया गया था 1694 ई. में।
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4. मदन मोहन मंदिर, वृंदावन (मथुरा) उ.प्र. में जिसकी स्थापना महाराजा वज्रनाभ द्वारा की गई थी 1748 में, किन्तु मंदिर का निर्माण हुआ था। 1819 ई. में।
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5. मदन मोहन मंदिर, कूच विहार, पश्चिम बंगाल में जिसकी स्थापना महाराजा नृपेन्द्र नारायण द्वारा की गयी थी 1885-1889 ई. में।
कृष्ण के इस मदन मोहन स्वरूप का तात्पर्य स्पष्ट करने के लिए जनना होगा कि कृष्ण के मुख्य तीन रूप उभरकर आते हैं :
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1. प्रथम रूप है धर्मात्मा का, योगी का जो ज्ञान रूप का द्योतक है। इस रूप का चरम गीता में दिखाई पड़ता है।
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2. द्वितीय रूप है ललित, मधुर, मदन गोपाल और मदन मोहन का। इस रूप का चरम दिखाई देता है श्रीमद्भागवत में, पद्म पुराण में और ब्रह्मवैवर्त पुराण में। यह रूप जीवन के राग वृत्ति का घोतक है। राग अर्थात् अनुराग, प्रेम, अभिलाषा या इच्छित वस्तु प्राप्ति की इच्छा आदि।
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3. तृतीय रूप है राजनयिक का जो पुराणों में तथा महाभारत में दिखाई देता है। यह रूप कर्म वृत्ति का प्रतिनिधित्व करता है।
भारत के सम्पूर्ण कृष्ण चरित गाथा का अवलोकन किया जाए तो उपर्युक्त तीन रूपों में कवियों ने केवल ललित-मधुर गोपाल कृष्ण को या मदन मोहन स्वरूप को ही काव्य का विष्य बनाया है, अन्य रूपों को इसी रूप की पुष्टि या महत्ता के लिए यदा-कदा प्रयुक्त किया गया है। यहाँ बोड़ेया में मदन मोहन मंदिर की स्थापना का विचार अगर लक्ष्मी नारायण तिवारी के मन में आया होगा तो यह अनुमान उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर करना सहज हो जाता है कि निश्चय ही लक्ष्मी नारायण तिवारी की रूचि कृष्ण के मदन मोहन रूप या रागवृत्ति में थी। वे राधा भाव के पोषक होंगे। संभव है उनमें सखी भाव, दास्य भाव भी हों या वे मधुमती भूमिका में हों, यह तो शोध का विषय है। किन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इतने भव्य मंदिर का निर्माण किसी साधारण मनः स्थिति में उस कठिन परिस्थिति में जब मुगल काल में औरंगजेब का शासन था, संभव नहीं था। मैं आगे कुछ कहूँ, इससे पूर्व चाहता हूँ इस काल में भारत की स्थिति तथा छोटानागपुर की स्थिति कैसी थी, का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करूँ
1200 ई. से 1857 ई. तक के काल को भारत के इतिहास में उत्तर-मध्य काल कहा जाता है। इस काल की सर्वप्रमुख विशेषता यह रही है कि तेरहवीं शदी के प्रारंभ में (हर्षवर्द्धन की मृत्यु के पश्चात्) उत्तर भारत में हिन्दू राज्य-शक्ति का सदा के लिए लोप होकर मुस्लिम केन्द्रीय शासन का सूत्रपात हुआ। राजनीति की ओर से जनमानस की उदासीनता जो युगों पहले जनपदीय गणराज्यों के विनाश और साम्राज्यों की स्थापना के बाद केवल राजभक्ति के रूप में सीमित होकर गहरी होती आयी थी, अब प्रायः घृणा में परिणत हो गयी। तेरहवीं से सोलहवीं शदी के प्रथम चरण तक एक प्रकार का निरंकुश
सैनिक शासन रहा। इसके बावजूद यह कहा जाता है कि यह काल राजनीति का नहीं था बल्कि धर्म का था। उत्तर भारत में सातवीं से लेकर बारहवीं शदी तक धार्मिक विघटन / स्खलन होता रहा जो इसी काल में (13वीं से 16वीं शदी) पुनर्जीवन प्राप्त करने की भूमिका का निर्माण किया। अकबर के काल में उसकी उदार धार्मिक नीति और सुव्यवस्था के कारण समाज को सर्वांगीन उन्नति करने का अवसर प्राप्त हुआ लेकिन पुनः महत्वाकांक्षी मुस्लिम राजाओं तथा उनके धर्मांध मुल्लाओं की कट्टर धर्म-संस्कृति ने देश में नई समस्याएँ पैदा की। भारतीय समाज को भीतर और बाहर (आक्रमणकारियों के कारण), दोनों ओर की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था। ऐसे समय पर एक जीवित जाति होने के नाते हिंदुओं ने अपनी जीवन शक्ति को एक नए रूप में पुनर्जाग्रत किया तथा भक्ति को आंदोलन का रूप देकर, भक्ति के बहाने ही सही, उन मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा को जिसमें सामयिक समस्याओं के समाधान के साथ जीवन के शाश्वत सत्य निहित थे, बचाया। यह मदन मोहन मंदिर निश्चय ही तात्कालिक मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए, जीवन के शाश्वत सत्य की रक्षा के लिए तथा सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए एक केन्द्र के रूप में स्थापित किया गया होगा और यह चिंतन भक्त लक्ष्मी नारायण तिवारी के सोच की उपज था। निश्चय ही उनका उद्देश्य रहा होगा सभी वर्णाश्रम धर्म से भ्रष्ट, शास्त्रीय मर्यादा से च्युत और विश्रृंखल सामाजिक जीवन पुनरसंघटित करने की ओर प्रेरणा देने की। इससे उस समय बोड़ेया और आस-पास के गाँवों में चेतना की नयी लहर दौड़ गयी होगी और प्रसुप्त क्रियात्मक शक्तियाँ नवीन प्रवेग से जाग गयी होंगी और समाज में सर्वोच्च वर्गों से लेकर निम्न वर्गों में उत्साह का संचार हो गया होगा। यही कारण होगा कि 1665 ई. (1722 संवत) में बोड़ेया मदन मोहन मंदिर का निर्माण लक्ष्मी नारायण तिवारी द्वारा कराये जाने के ठीक बीस वर्षों बाद 1685 ई. (1742 संवत) में चुटिया में राजा रघुनाथ शाह के सहयोग से राधावल्लभ मंदिर की स्थापना उनके पूर्वजों के गढ़ में की गयी। चुटिया का गढ़ वे लोग पहले ही छोड़ चुके थे। जिसे वे अपने गुरू को दान कर दिया था। उनके गुरू थे ब्रह्मचारी हरिनाथ। कालान्तर में लोग इसे राम मंदिर चुटिया कहने लगे हैं। इसके ठीक छः वर्ष बाद 1691 में (संवत 1748) में राजा रघुनाथ शाह के छोटे भाई ठाकुर एनी शाह ने राँची से 10 कि.मी. दक्षिण में एक 250 फीट ऊँचे पहाड़ पर 100
फीट ऊँचा जगन्नाथ स्वामी का मंदिर बनवाया। इसी से इस गाँव का नाम बाद में जगन्नाथपुर हो गया।
इस प्रकार औरंगजेब के काल में छोटानागपुर में राँची के समीप ही तीन कृष्ण मंदिरों का निर्णाण हुआ। बोड़ेया में मदन मोहन स्वरूप, चुटिया में राधाबल्लभ स्वरूप और जगन्नाथपुर में जगन्नाथ स्वरूप आज भी विद्यमान हैं।
राजनीतिक दृष्टि से यह मुगल काल अवश्य था किन्तु साहित्यिक दृष्टि में यह भक्ति काल था। कहा गया है कि भक्त की भगवान के प्रति जो पूज्य-भावना होती है, उसमें श्रद्धा, प्रेम, भीति इत्यादि कई चित्त - वृत्तियों का संयोग होता है। लक्ष्मी नारायण तिवारी में इन सभी भावों का संचार था ऐसा माना जा सकता है क्योंकि इन भावों के वगैर इस भव्य मंदिर का आयोजन असंभव प्रतीत होता है। इनकी भक्ति धारा का परिचय तब और अधिक मिलता है जब ज्ञात होता है कि परम्परा से मंदिर के लिए इन्होंने दीपक की व्यवस्था कुम्हारों पर छोड़ रखी थी, बाती की व्यवस्था जुलाहों के अधीन थी और तेल की जिम्मेवारी तेलियों को दी गयी थी। इस समदृष्टि (कलैक्टिविज्म) की जितनी भी प्रसंशा की जाए कम है।
दिल्ली की गद्दी पर जब औरंगजेब बैठा था उस वक्त नागवंशी राजा रघुनाथ शाही का राज्यकाल छोटानागपुर में चल रहा था । इनकी राजधानी डोइसा या नवरतनगढ़ में थी। इसका निर्माण दुर्जनशाल के समय ही हो चुका था। इस गढ़ में भी एक जगन्नाथ मंदिर की स्थापना की गयी थी। इस समय रामगढ़ का राजा दालेल सिंह था, पलामू में राजा मेदिनीराय थे। सिंहभूम और ढालभूम के राजा मुगलों के अधीन थे। मुगलों के आतंक से पलामू के राजा भी जंगल भाग गए थे । 1710 ई. में राजमहल और 1720 ई. में नागवंशी राजाओं पर भी मुगलों का आक्रमण हुआ; किंतु ये तीनों कृष्ण मंदिर अर्थात् बोड़ेया का मदन मोहन, चुटिया का राधावल्लभ और जगन्नाथ पुर मंदिर इस आतंक से भयमुक्त थे।
श्री कृष्ण के मदन मोहन नाम की चर्चा एक बांगला पुस्तिका श्री श्री कृष्णेर अष्टोत्तर शतनाम में श्री काली प्रसन्न विद्यारत्न ने किया है (देखें परिशिष्ट) कि चैतेन्य सम्प्रदाय के अनुसार राधिका की ननद और आयन घोष की बहन कुटिला ने ही कृष्ण को मदन मोहन नाम से अभिषिक्त किया है।